शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

दूषित पर्यावरण और विलुप्त होते वन्य जीव




विश्व की सबसे बडी समस्या नवजाति की आदि काल के साथी जंगलों वनों की रियाली, वन्य प्राणियों को बचाने की है। आज प्रकृति को बेरहमी से दोहन किया जा रहा है। बदले में प्रकृति भी विनाश का तांडव रचकर मानव जाति को किए का नतीजा दे रही है। आज विश्व में प्रतिवर्ष लाखों व्यक्ति बिगडे पर्यावरण से उत्पन्न प्रदूषणों, जल, वायु आदि प्रदूषण से ग्रसित है। यदि प्रदूषित शहरों की बात की जाए तो भारतवर्ष के महानगर इसमें पहले स्थान पर हैं आदि काल से मानव जाति व घने जंगलों व नदी, नालों वन्य प्राणियों से जो सानिध्य रहा है वहीं सानिध्य आज भी बरकरार रहना चाहिए था। यही कडवा प्राकृतिक संतुलन का नियम है। विकास की अंधी दौड में हमने पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचायी है। औद्योगिक क्रांति के बाद फासिल इंधनों का जमकर उपयोग हुआ। इससे वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई है इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर पिघल रहे है और समुद्र का जलस्तर तेजी से बढने लगा है। विश्वस्तर पर पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से निपटने के लिए तेजी से इंतजाम किया जा रहा है, लेकिन हम अभी इस मामले में काफी पीछे है। इसकी मुख्य वजह है जलवायु और भूमी को प्रदूषित करने में खतरनाक रसायनों के अलावा प्लास्टिक, तम्बाकू युक्त पदार्थ व बायो मैडिकल कचरा भी अहम भूमिका निभा रहा है। हमारे रोजमर्राह के प्रयोग में पोलीथीन का इस कदर प्रयोग होता है और जिसे लोक कचरे में फेंक देते हैं वह सडता नहीं है और नालियों में व खुले वातावरण में चारो तरफ फैले हुए मिलते है। पर्यावरण में चारों तरफ फैले हुए मिलते है। पर्यावरण प्रदूषण के आंकडों पर नजर डाले तो काफी भयावह तस्वीर उभर कर सामने आती है। वातावरण में छोडे जाने वाले लगभग 4000 रसायनों में से 43 खतरनाक कैंसर रोग का कारण बनते हैं दुनियाभर में 5 वर्ष तक की आयु के 2000 बच्चे हर साल दूषित पानी की वजह डायरिया के शिकार हो जाते है। ग्लोबल वार्मिंग की वज़ह से प्रति वर्ष 1,50,000 लोग अस्माक मौत के मुँह में समा जाते है। इसके अलावा हमारे द्वारा बहाया गया खतरनाक केमिकल और जहाजों से रिसने वाला तेज़ सैकडों जीवन जंतुओं की मौत का कारण बनता है। आज इस पर्यावरण हवास की वजह से ही विश्व में कहीं अनावृष्टि हो रही है तो कहीं पर अतिवृष्टि हो रही है कहीं पर भयंकर बाढ आ रही है तो कहीं भयंकर सूखा। वर्तमान में भारत का वन क्षेत्र कुल क्षेत्रफल का 19 प्रतिशत ही वनाधीन है। बाकी हिस्सा या तो खेती के प्रयोग में हो रहा है या तो शहरी चपेट में है। आज विश्व के सर्वोच्च शिखर माउंट एवरेस्ट पर भी कचरा मानव के कारण ही पहुँचा है। बाकी तो आने वाले भयावह स्थिती का इंतजार कर रहे है। आज भारत के ज्यादातर भागों में पानी की कमी का रोना है। शहरों या गाँव में पानी के लिए लंबी-लंबी लाइनों पर घंटों इंतजार करना पडता है। नदियों में पानी का स्तर घटता जा रहा है। झीलें सुख रही है। आखिर ऐसा क्यों इसका सबसे बडा कारण है पहाडों व जंगली क्षेत्रों का वातावरण उतारना जहाँ-जहाँ भी वन है वहाँ पानी की कमी नहीं है भारत में 70% कृषक पशुपालन से ही आय करते हैं एवं वनों पर ही आश्रित है। जितनी भूमि पर वन हैं वहाँ पानी अमृत का रूप धारण कर मानव को जल पीकर उसकी बेश कीमती कृर्षि धंधों की पूर्ति करता है यदि हिमालय पर्वत पानी उपलब्ध न कराए तो समूचे भारत की कृर्षि शून्य होकर रह जाएगी। वर्तमान परिपेक्ष्य में देखा जाए तो भारत में हाथियों की संख्या 1997 की जनगणना में 2900 पाई गई थी तथा जंगली क्षेत्र का हवास व तस्करों द्वारा हाथियों की हत्या आदि का प्रतिकूल प्रभाव पडा है। जबकि विश्व में सबसे ज्यादा हाथी दक्षिण अफ्रीका क्षेत्र में है जो 2,50,000 के लगभग है। इसका कारण वहाँ वन क्षेत्र प्रचुर मात्रा में विद्ममान है। भारत में बाघों के निरंतर कम होती संख्या से इसके संरक्षण के लिए 3 दशक पहले बाघ परियोजना पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। पिछले कुछ वर्षों से बाघों की संख्या में भारी कमी आई हैं। परंतु आश्चर्य की बात यह है कि बाघों को कौन मार रहा है। यह सारा इतना गुपचुप तरीके से हो रहा है कि इसकी जानकारी किसी को नहीं है। केन्द्रीय सरकार व राज्य सरकारों को चाहिए कि पर्यावरण व वन्य जीव सुरक्षा हेतु एक कारगर नीति बनाए जहाँ वन्य जीवों को ज्यादा से ज्यादा वन क्षेत्र मिले जहाँ वे स्वेच्छा से विचरण कर सकें।

दूषित पर्यावरण और विलुप्त होते वन्य जीव




विश्व की सबसे बडी समस्या नवजाति की आदि काल के साथी जंगलों वनों की रियाली, वन्य प्राणियों को बचाने की है। आज प्रकृति को बेरहमी से दोहन किया जा रहा है। बदले में प्रकृति भी विनाश का तांडव रचकर मानव जाति को किए का नतीजा दे रही है। आज विश्व में प्रतिवर्ष लाखों व्यक्ति बिगडे पर्यावरण से उत्पन्न प्रदूषणों, जल, वायु आदि प्रदूषण से ग्रसित है। यदि प्रदूषित शहरों की बात की जाए तो भारतवर्ष के महानगर इसमें पहले स्थान पर हैं आदि काल से मानव जाति व घने जंगलों व नदी, नालों वन्य प्राणियों से जो सानिध्य रहा है वहीं सानिध्य आज भी बरकरार रहना चाहिए था। यही कडवा प्राकृतिक संतुलन का नियम है। विकास की अंधी दौड में हमने पर्यावरण को भारी क्षति पहुंचायी है। औद्योगिक क्रांति के बाद फासिल इंधनों का जमकर उपयोग हुआ। इससे वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई है इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर पिघल रहे है और समुद्र का जलस्तर तेजी से बढने लगा है। विश्वस्तर पर पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से निपटने के लिए तेजी से इंतजाम किया जा रहा है, लेकिन हम अभी इस मामले में काफी पीछे है। इसकी मुख्य वजह है जलवायु और भूमी को प्रदूषित करने में खतरनाक रसायनों के अलावा प्लास्टिक, तम्बाकू युक्त पदार्थ व बायो मैडिकल कचरा भी अहम भूमिका निभा रहा है। हमारे रोजमर्राह के प्रयोग में पोलीथीन का इस कदर प्रयोग होता है और जिसे लोक कचरे में फेंक देते हैं वह सडता नहीं है और नालियों में व खुले वातावरण में चारो तरफ फैले हुए मिलते है। पर्यावरण में चारों तरफ फैले हुए मिलते है। पर्यावरण प्रदूषण के आंकडों पर नजर डाले तो काफी भयावह तस्वीर उभर कर सामने आती है। वातावरण में छोडे जाने वाले लगभग 4000 रसायनों में से 43 खतरनाक कैंसर रोग का कारण बनते हैं दुनियाभर में 5 वर्ष तक की आयु के 2000 बच्चे हर साल दूषित पानी की वजह डायरिया के शिकार हो जाते है। ग्लोबल वार्मिंग की वज़ह से प्रति वर्ष 1,50,000 लोग अस्माक मौत के मुँह में समा जाते है। इसके अलावा हमारे द्वारा बहाया गया खतरनाक केमिकल और जहाजों से रिसने वाला तेज़ सैकडों जीवन जंतुओं की मौत का कारण बनता है। आज इस पर्यावरण हवास की वजह से ही विश्व में कहीं अनावृष्टि हो रही है तो कहीं पर अतिवृष्टि हो रही है कहीं पर भयंकर बाढ आ रही है तो कहीं भयंकर सूखा। वर्तमान में भारत का वन क्षेत्र कुल क्षेत्रफल का 19 प्रतिशत ही वनाधीन है। बाकी हिस्सा या तो खेती के प्रयोग में हो रहा है या तो शहरी चपेट में है। आज विश्व के सर्वोच्च शिखर माउंट एवरेस्ट पर भी कचरा मानव के कारण ही पहुँचा है। बाकी तो आने वाले भयावह स्थिती का इंतजार कर रहे है। आज भारत के ज्यादातर भागों में पानी की कमी का रोना है। शहरों या गाँव में पानी के लिए लंबी-लंबी लाइनों पर घंटों इंतजार करना पडता है। नदियों में पानी का स्तर घटता जा रहा है। झीलें सुख रही है। आखिर ऐसा क्यों इसका सबसे बडा कारण है पहाडों व जंगली क्षेत्रों का वातावरण उतारना जहाँ-जहाँ भी वन है वहाँ पानी की कमी नहीं है भारत में 70% कृषक पशुपालन से ही आय करते हैं एवं वनों पर ही आश्रित है। जितनी भूमि पर वन हैं वहाँ पानी अमृत का रूप धारण कर मानव को जल पीकर उसकी बेश कीमती कृर्षि धंधों की पूर्ति करता है यदि हिमालय पर्वत पानी उपलब्ध न कराए तो समूचे भारत की कृर्षि शून्य होकर रह जाएगी। वर्तमान परिपेक्ष्य में देखा जाए तो भारत में हाथियों की संख्या 1997 की जनगणना में 2900 पाई गई थी तथा जंगली क्षेत्र का हवास व तस्करों द्वारा हाथियों की हत्या आदि का प्रतिकूल प्रभाव पडा है। जबकि विश्व में सबसे ज्यादा हाथी दक्षिण अफ्रीका क्षेत्र में है जो 2,50,000 के लगभग है। इसका कारण वहाँ वन क्षेत्र प्रचुर मात्रा में विद्ममान है। भारत में बाघों के निरंतर कम होती संख्या से इसके संरक्षण के लिए 3 दशक पहले बाघ परियोजना पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। पिछले कुछ वर्षों से बाघों की संख्या में भारी कमी आई हैं। परंतु आश्चर्य की बात यह है कि बाघों को कौन मार रहा है। यह सारा इतना गुपचुप तरीके से हो रहा है कि इसकी जानकारी किसी को नहीं है। केन्द्रीय सरकार व राज्य सरकारों को चाहिए कि पर्यावरण व वन्य जीव सुरक्षा हेतु एक कारगर नीति बनाए जहाँ वन्य जीवों को ज्यादा से ज्यादा वन क्षेत्र मिले जहाँ वे स्वेच्छा से विचरण कर सकें।

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

पत्रकारिता की भूमिका

पत्रकारिता की भूमिका

हमारे देश में पत्रकारिता को चौथा स्तंभ कहा जाता है। यह बात हमें दर्शाती हैं, कि हमारे समाज व देश के लिए पत्रकारिता कितनी महत्वपुर्ण हैं। पत्रकारिता की भूमिका निर्माण पूर्ण होनी चाहिए। ‘सच्चाई को सामने लाना चाहिए’ एक महत्वपुर्ण शब्द है। पत्रकारिता में बेजुबानो की आवाज बननी चाहिए समाज की गंभीर समस्याओं को समाज के पटल में रखना चाहिए। आम लोगों की आवज जो कि उच्च पदों पर बैठे लोगों तक नहीं पहुँच पाती है। उन की आवाज को उन के कानों तक पहुँचाना एक जिम्मेदार पत्रकार का कर्त्तव्य है। पत्रकारिता को निस्पक्ष होना आवश्यक है। बात सिद्धान्तों की होनी चाहिए। लेकिन समय के बदलते दौर के साथ हमने सिद्धांतों को खूँटी पर लटका दिया है, आज बात सिर्फ सिद्धान्त की होती है परंतु करनी और कथनी मे बहुत फर्क होता है। आज पत्रकारिता के मायने, स्वरूप और लक्ष्य बदल चुका है। आज आधुनिक संचार पत्रकारिता के युग में भारत के आम लोगों की आवाज दब कर रह गई है जो समाचार सामने लाने चाहिए, कई ज्वलंत मुद्दों को दबा दिया जाता है। आज खबरों का मतलब सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन बन कर रह गई है। आज समाचार वाचक व वाचिका कम माँडल ज्यादा लगती है। लेकिन अंधेरी सुरंग के एक कोने से रोशनी आ रही है। आज भी पत्रकारिता के सिद्धांतों को कुछ लोगों ने जिन्दा रखा है और मुझे उम्मीद है कि आने वाले समय मे युवा इस उम्मीद को कायम रखेगें।

शनिवार, 14 नवंबर 2009

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बुधवार, 11 नवंबर 2009

भोगतंत्र से तिकड़म तंत्र

भोगतंत्र से तिकड़म तंत्र

संसदीय शासन के तौर तरीके व्यक्तिगत सत्ता के स्थान पर बहुमत को सिद्ध करने के सिद्धांत पर टिका है, यहाँ सभी सत्ता पक्ष व विपक्ष बहुमत को सिद्ध करने में सभी साम, दाम, दण्ड, वेद का इस्तेमाल कर विरोधियों को धन के बल पर बाहुबल से बहुमत के निर्णय को अपने पक्ष में कर देता है। सवा अरब की आबादी वाले मुल्क में वास करने वाली भेड़ों (जनता) को कुछ मुठ्ठी भर गडरीया हाक रहे हैं। मानव समुदाय को प्राकृति की महत्वपूर्ण और अनुपम देन है। यह समझना बेवकूफी होगी कि गडरियों की संख्या केवल पाँच दस हजार लोगों जनता सवा अरब भेड़ रूपी भारतीय जनमानस को हाक रहे है वे चाहे इन भेड़ों को बकरों से लडायें क्योंकि अगर इन दोनों में लड़ते हुए कोई एक मर गया तो इनकी चाँदी हो जाएगी और दोनो मर गए तो सोने पर सुहागा। राजनीति की इस उठा पटक के परिणामों के रुप में सामने आते हैं तो केवल शासक वर्ग का गिरा हुआ वैदिक स्तर इन सब परिस्थितियों से राष्ट्र और राज्य की दुर्दशा पर कितना कष्ट होता है। इसका आंकलन नहीं किया जा सकता है इस कटु सच का विरोध केवल एक धूंर्त राजनितज्ञ ही कर सकता है। क्या सरकार के नेताओं को किसी भी कार्य के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? गवर्नल, मंत्रियों की इच्छाओं और आदेशों के परिणामों के लिए दोषी कौन होगा ? किसी बुद्धिमान नेता का कार्य रचनात्मक विचारों तथा लोकहितकारी योजनाओं को मूर्त रूप देना है या धूर्त और उजड़ व जनप्रतिनिधियों को संसद में पहुँचाना। जो केवल मंत्री पद और नोट के लिए चापलूसी करते है। प्रतिभाशाली व्यक्तियों के कार्यों में हमेशा जन साधारण की निष्क्रियता बाधक बनती रही है इस बाधा को दूर करने के लिए उसके पास तीन विकल्प है एक तो इन मूर्खों, भेड़ों के (झुण्ड) भीड़ को खरीद ले दूसरा राष्ट्र जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण योजनाओं को लागू करने का विरोध करें। तिसरी राजनैती से सन्यास ले लो। ऐसी परिस्थितियों में ईमानदार नेता को राजनीतिक विवशता होती है। वहीं दूसरी और उसकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा । सच्चे राष्ट्र भक्त और ईमानदार नेता को राजनीतिक ठेकेदारी के स्तर तक नहीं गिरना चाहिए। हर नेता को राजनीति का खेल खेलने की खुजली होती है परन्तु यह सरकारें विकास को पूर्ण रूप से रोक लेते हैं। राजनीतिक ठेकेदार जितना अधिक संकुचित द्रृष्टकोण वाला और बुद्धिमान होगा उसकी राजनैतिक जानकारी उतनी ही सही होगी वह इस व्यवस्था को बहुत पसन्द करता है क्योंकि इसमें रचनात्मक प्रतिभा की कोई आवश्यकता नहीं होती, न ही श्रेष्ठतम गुणों की। इस गन्दी राजनीति का कड़वा सच है कि यहाँ सत्ताधारियों को निजी योग्यता जितनी घटती है इन नेताओं की कीर्ति उतनी ही बढ़ती है राजनेता व्यक्तिगत रूप से संसदीय बहुमत पर जितना अधिक निर्भर होगा उसकी भौतिक प्रतिभा और कार्य करने की क्षमता कम होगी। राजनीतिक चालबाज जो भी काम करते हैं जनता की स्वीकृति पाने के लिए कई प्रकार की चाले चलते हैं, हमेशा अपनी जिम्मेदारी दूसरे नेता के कंधो पर डालने के लिए योग्य साथियों की तलाश करते रहते है। जो वक्त आने पर उनके काम आ सके यह परम सच है कि व्यक्ति विशेष का स्थान बहुमत नहीं हो सकता। एक बुद्धिमान व धैर्यवान व्यक्ति जिसे कुशलता से किसी कार्य को पूर्ण करता है। उसी प्रकार एक योग्य प्रतिभा संपन्न व्यक्ति जिसे कुशलता से शासन की बागडोर सम्भालना है और लोक कल्याण के कार्य करता है। चुने गए सैकडों मूर्ख प्रतिनिधि मिलकर भी वह कार्य नहीं कर सकते। नेता बहुत ही उतावले और महत्वकांक्षी होते हैं उनको अपनी बारी का इंतजार करने तक का सब्र नहीं होता। वह लम्बी लाईन में खडे नहीं होना चाहते है बल्कि पद पाने के लिए उससे जुड़ें हुए हर परिवर्तन का गहन अध्ययन करते है। श्रेष्ठ नेता के गुणों की जानकारी मिलते ही उसके खिलाफ मोर्चा संगठित किया जाता है परिणाम स्वरूप या तो वह नेता खुद ही सत्ता और वपद को त्याग देता है "या फिर तथाकथित यशस्वी उल्लुओं की टोली में शामिल होकर उन्ही की बोली बोलने लगता है"। सार्वजनिक हित के नाम पर नहीं छोड़ना या फिर वे उसे निकाल बाहर नहीं करते पद छोड़ने वाला व्यक्ति जानता है कि उसे दुबारा यह पद आसानी से नहीं मिलने वाला है इसलिए आसानी से नहीं छोड़ता बल्कि उसे पद छोड़ने के लिए विवश किया जाता है ऐसे नेता बार-बार उस पद को पाने की इच्छा लिए लाईन में खडे इंतजार करते है हर संभव प्रयास करते रहते है। और तब तक करते रहते हैं, जब तक महत्त्वाकांक्षी नेता अपनी ताकत से उन्हें पार्टी से बाहर नहीं करते । मंत्रियों के पदों के लिए होने वाले तोल-मोल और सौदेबाजी भारतीय लोकतंत्र के खोखलेपन को साफ उजागर करता है एक नेता से पद छीनकर दूसरे नेता को मंत्री पद से नवाजना यह क्रम धीरे-धीरे घटता जाता है हर परिवर्तन के साथ राजनेता का स्तर भी गिरता चला जाता है। अंत में वह न घर का रहता है और न घाट का केवल तुच्छ प्रवृति के राजनीतिक दलाल ही शासन कर रहे है ऐसे नेता केवल व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए हर रोज नये सौदेबाजी करते है नये गठबंधन करते है और जोड़-तोड़ करते रहते है कभी उनको कुत्ते कहते है तो कभी उनके तलवे चाटते नजर आते है।